पाप ही समस्त दुःख का कारण नहीं है।

पाप ही समस्त दुःख का कारण नहीं है।

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      दूसरे लोग अनीति और अत्याचार करके निर्दोष व्यक्ति को सता सकते हैं, शोषण उत्पीड़न और अन्याय का शिकार होकर कोई व्यक्ति दुःख पा सकता है। 

      अत्याचारी को भविष्य में उसका दण्ड मिलेगा, लेकिन इस समय तो निर्दोष को ही कष्ट सहना पड़ा। ऐसी घटनाओं में उस दुःख पाने वाले व्यक्ति के कर्मों का फल नहीं कहा जा सकता।

       आमतौर से दुःख को नापसन्द किया जाता है। लोग समझते हैं कि पाप के फलस्वरुप अथवा ईश्वरीय कोप के कारण दुःख पाते हैं, परन्तु यह बात पूर्ण रूप से सत्य नहीं है। 



        दुःखों का एक कारण पाप भी है, परन्तु यह ठीक नहीं कि समस्त दुःख पापों के कारण ही आते हैं। भ्रम के आधार पर कोई व्यक्ति अपने को बुरा समझे, आत्मग्लानि करें, अपने को नीच या निन्दित समझे, इसकी कोई आवश्यकता नहीं है।

       जब अपने ऊपर कोई विपत्ति आवे तो यह ही नहीं सोचना चाहिये कि हम पापी हैं, अभागे हैं, ईश्वर के कोप का भाजन हैं। सम्भव है वह कष्ट हमारे लिये किसी हित के लिए ही आया हो, उस कष्ट की तह में शायद कोई ऐसा लाभ दिया हो, जिसे हमारा अल्पज्ञ मस्तिष्क ठीक-ठीक रूप से न पहचान सके। 

       मृत्यु के समीप तक ले जाने वाली बीमारी, परम प्रिय जनों की मृत्यु, असाधारण घाटा, दुर्घटना, विश्वसनीय मित्रों द्वारा अपमान या विश्वासघात जैसी दिल को चोट पहुँचाने वाली घटनायें इसलिए आती है कि उनके जबरदस्त झटके, आघात से मनुष्य तिलमिला जाय और सजग होकर अपनी भूल सुधार लें। 

      गलत रास्ते को छोड़कर सही रास्ते पर आ जाय। सांसारिक मोह, ममता और विषय वासना का चस्का ऐसा लुभावना होता है, कि उन्हें साधारण इच्छा होने से छोड़ा नहीं जा सकता। 

जय महाकाल

       एक हल्का सा विचार आता है, कि जीवन जैसी अमूल्य वस्तु का उपयोग किसी श्रेष्ठ कार्य में करना चाहिए। परन्तु दूसरे ही क्षण ऐसी लुभावनी परिस्थितियाँ सामने आ जाती हैं, जिनके कारण वह हल्का विचार उड़ जाता है और मनुष्य जहाँ का तहाँ उसी तुच्छ परिस्थिति में पड़ा रहता है।

        मनुष्य का कर्तव्य है कि सुख-दुःख का ध्यान किये बिना सदैव अपने उत्तरदायित्व का पालन करें और सद्मार्ग पर चलता रहे। कार्य में सफलता मिलती है या असफलता, प्रशंसा होती है या तिरस्कार प्राप्त होता है, लाभ में रहते हैं या घाटे में, इन सब बातों के कारण अपने कर्तव्य का त्याग करना किसी प्रकार उचित नहीं कहा जा सकता।

        हम अपनी छोटी बुद्धि से उसे चाहे न समझें, वह जल्दी प्रकट हो या देर से आये, पर हमारे कर्मों का सच्चा फल हमको अवश्य मिलेगा। इसलिए हमको किसी भी अवस्था में ईश्वरीय नियमों का उल्लंघन करना उचित नहीं।

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